जगन्नाथ मंदिर स्थापनातीर लगने के बाद शिकारी जरा को समझाते श्री कृष्ण

इस कहानी में हमें भगवान जगन्नाथ मंदिर स्थापना की कथा पढ़ेंगे। महाभारत युद्ध खत्म हो चुका था । श्री कृष्ण ने द्वारिका नगरी को बसाया और यदु वंशियों में खूब समृदि हुई ।

यह कहानी द्वारिका का विनाश और श्री कृष्ण के शरीर रूप पृथ्वी से प्रस्थान और चेतना के रूप में जगन्नाथ भगवान के रूप में स्थापित होने की भूमिका तैयार करती है ।


श्री कृष्ण के प्रभाव से यदुवंशियों का प्रभाव पृथ्वी पर बढ़ गया लेकिन साथ ही उनमें अहंकार आ गया । नए युवा अब ताकत के गुमान में बड़ों का आदर सम्मान भूल गए और वे हर किसी का मज़ाक उड़ा देते थे ।

इसी क्रम में एक दिन उनका सामना ऋषि दुर्वासा से हुआ । घमंड में चूर यदुवंशी युवकों ने कृष्ण के पुत्र सांब को स्त्री वेश में उनके सामने ले जाकर पूछा कि ऋषिवर यह गर्भवती है, इसे पुत्र होगा या पुत्री ? जबकि सांब ने अपने कपड़ों में एक लोहे की गदा छिपा रखी थी, इस बात से नाराज होकर ऋषि दुर्वासा ने कहा मूर्ख लड़कों अब यही गदा संपूर्ण यदुकुल का सर्वनाश कर देगी ।”


श्राप सुनकर सभी खबरा गए और उन्होंने गदा को रेत जैसे बारीक कणों में पीस कर समुद्र में डाल दिया लेकिन एक नुकीला टुकड़ा फिर भी बच गया । उसे वैसे ही समुद्र में फेंक दिया । अब सभी यदुकुल के युवा संतुष्ट हो गए और समुद्र के किनारे ही जश्न मनाने लगे ।

बारीक रेत समुद्र के किनारे आ लगी और घास में बदल गई । मजे करते युवा शराब के नशे में धुत होकर आपस में लड़ने लगे । जैसे ही वे घास उखाड़ कर हाथ में लेते वह गदा में बदल जाती और इसी क्रम में कृष्ण के पुत्र सांब की हत्या हो गई और फिर लड़ाई इतनी बढ़ गई कि सभी युवा एक दूसरे से लड़ कर मर गए ।


इधर जो गदा का नुकीला टुकड़ा समुद्र में फेंका गया था उसे एक मछली निगल गई और वह एक जरा नामक शिकारी के हाथ लग गया और उसने नुकीली धातु से तीर बना लिया ।
जब सभी यदुवंशी मारे गए,बलराम भईया ने भी समाधि ले ली,द्वारिका भी जलमग्न हो गई तो कृष्ण एक दिन जंगल में पेड़ का सहारा लेकर विश्राम कर रहे थे । तभी शिकारी जरा वहां आ गया और पेड़ के पीछे से श्री कृष्ण की पैर का गुलाबी रंग उसे जानवर की तरह दिखाई दिया और उसने तीर चला दिया ।

जगन्नाथ मंदिर स्थापना
तीर लगने के बाद शिकारी जरा को समझाते श्री कृष्ण

तीर लगने के बाद जब उसने देखा कि तीर श्री कृष्ण को लगा है तो उसे बड़ा भय और पश्चाताप हुआ । वह अपने किए पर पछता कर भगवान श्री कृष्ण से माफी मांगने लगा । कृष्ण ने शिकारी जरा को समझाया कि “इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है पिछले जन्म में जब मैं राम के रूप में अवतरित हुआ था तब तुम वानर राज बाली थे और मैंने तुम्हें इसी तरह छिप कर मारा था ।”
इसके बाद कृष्ण ने देह छोड़ दी । उनके पार्थिव शरीर का दाह संस्कार किया गया । जब चिता ठंडी हुई तो बाकी सब शरीर राख में बदल चुका मगर नीले रंग का हृदय अब भी धड़क रहा था । यह शरीर का बचा हुआ भाग भी समुद्र में प्रवाहित कर दिया गया ।
श्री कृष्ण का हृदय तैरते-तैरते पुरी के तट पर जा पहुंचा वहां तट पर नील माधव के रूप में स्थिर हो गया । उस समय राजा इंद्रद्युम्न का राज था । रात में राजा इंद्रद्युम्न को स्वप्न में श्री कृष्ण ने दर्शन दे आदेश दिए कि तट पर जाएं वहां उन्हें एक पवित्र दारु (लकड़ी का लठ्ठा) मिलेगा उसकी मूर्ति बनवाएं और उसमें वह ब्रह्म पदार्थ (नील माधव) स्थापित करो ।

भगवान जगन्नाथ की स्थापना

जगन्नाथ मंदिर स्थापना

इंद्रद्युम्न ने समुद्र के किनारे सच में वह लकड़ी प्राप्त की जिसमें श्री कृष्ण का अवशेष व्याप्त था । उन्होंने इस लकड़ी से कृष्ण,बलभद्र और सुभद्रा की मूर्ति बनाने को कहा । किसी ने भी उस लकड़ी से मूर्ति बनाने की हिम्मत नहीं की क्योंकि लकड़ी बहुत कठोर थी ।

तब देवताओं के शिल्पकार साक्षात् विश्वकर्मा आगे आए और उन्होंने इस निर्माण की हामी इस शर्त पर भरी कि कोई उन्हें देखने नहीं आएगा और मूर्ति बनने का कार्य बंद कमरे में होगा । इंद्रद्युम्न ने विश्वकर्मा जी की शर्त स्वीकार कर ली, और विश्वकर्मा जी ने एक बंद कमरे में मूर्तियाँ बनाने का कार्य शुरू किया।

उन्होंने निर्देश दिया कि कोई भी कमरे में प्रवेश नहीं करेगा और न ही उन्हें काम करते समय देखेगा। कुछ समय तक सब ठीक चला, बंद कमरे में कोई आवाज नहीं होने से राजा की उत्सुकता और अधीरता बढ़ गई और धैर्य उत्तर दे गया ।

उसने कमरे का दरवाजा खोलकर अंदर झाँक कर देखा तो विश्वकर्मा जी मूर्तियों को तराश रहे थे । विश्वकर्मा जी ने शर्त तोड़े जाने पर मूर्ति निर्माण वहीं छोड़ दिया। मूर्तियाँ उस समय पूरी तरह से नहीं बन पाई थी । उन मूर्तियों में अभी हाथ, पैर और चेहरों का काम पूरा नहीं हुआ लगता था।राजा इंद्रद्युम्न के शर्त तोड़ते ही विश्वकर्मा अंतर्धान हो गए ।

भगवान जगन्नाथ की स्थापना

दुखी इंद्रद्युम्न को भगवान श्री कृष्ण ने सपने में उन्हें फिर दर्शन दिए । उन्होंने निर्देश दिया कि अधूरी मूर्तियाँ उन्हीं की इच्छा से है। अब इन मूर्तियों में वे स्वयं (जगन्नाथ), उनके भाई बलभद्र (बलराम) और बहन सुभद्रा के रूप में विराजमान होंगे।

Jagannath temple Sthapna
जय जगन्नाथ


मूर्तियों का अधूरा होना ही उनकी विशेषता है । तब से भगवान जगन्नाथ इसी रूप का दर्शन करने वालों की मनोकामनाएँ पूरी करते हैं। यह मंदिर और मूर्तियाँ तब से आज तक करोड़ों भक्तों के लिए आस्था का मुख्य केंद्र बना हुआ हैं ।