कर्ण का संघर्ष और उसका नियति से युद्ध
महाभारत में कर्ण का पात्र अत्यंत विशेष और गहन है। उसका जीवन आरंभ से ही संघर्षों से भरा रहा, और उसकी जीवन यात्रा कौरवों और पांडवों के साथ अपनी युवावस्था में ही शुरू हो गई थी।एक बार, पांडवों और कौरवों के बीच एक युद्ध कौशल प्रतियोगिता का आयोजन हुआ। जब कर्ण ने चुनौती दी कि वह अर्जुन को धनुर्विद्या में पराजित कर सकता है, तो गुरु कृपाचार्य और अन्य बड़े नीतिकारों ने उसे तुरंत रोक दिया।
उनका तर्क था कि कर्ण एक सूतपुत्र है, जबकि प्रतियोगिता में केवल राजपरिवार से संबंधित व्यक्ति ही भाग ले सकते थे।यह सब देखकर दुर्योधन, जो कर्ण के असाधारण पराक्रम से भली-भांति परिचित था, समझ गया कि केवल कर्ण ही अर्जुन को धनुर्विद्या में चुनौती दे सकता है। उसी सभा में, उसने कर्ण को अपना अभिन्न मित्र कहकर सम्मान दिया और उसी क्षण उसे अंग प्रदेश का राजा घोषित कर अंगराज कर्ण की उपाधि से विभूषित किया। इस सम्मान के बाद, कर्ण ने मरते दम तक दुर्योधन का साथ दिया और अपनी दोस्ती पूरी निष्ठा से निभाई।

कर्ण के दो अभिशाप
नियति का क्रूर खेलकर्ण के जीवन में दो ऐसे अभिशाप थे, जिन्होंने उसकी नियति को गहरा प्रभावित किया।1. परशुराम का अभिशापमहाभारत के अनुसार, कर्ण की माता कुंती को सूर्य की तपस्या के फलस्वरूप भगवान सूर्य ने एक दिव्य शिशु का आशीर्वाद दिया था, जो जन्म से ही कवच और कुंडल धारण किए हुए था। चूंकि कुंती अविवाहित थीं और बच्चे को रखना उनके लिए संभव नहीं था, इसलिए उन्होंने उसे एक टोकरी में गंगाजल में प्रवाहित कर दिया।
वह टोकरी एक रथ चालक को मिली, जो निःसंतान था। उसने और उसकी पत्नी ने इस बच्चे को ईश्वर का दूत मानकर अपना लिया। इस प्रकार, कर्ण एक सूतपुत्र (रथ चलाने वाले के पुत्र) के रूप में जाना जाने लगा, परंतु उसके मन में एक असाधारण योद्धा बनने की तीव्र इच्छा थी।उस समय, केवल महान गुरु परशुराम ही उच्चस्तरीय युद्ध कौशल, युद्ध नीति और शक्तिशाली अस्त्रों का गहन ज्ञान रखते और सिखाते थे।
परशुराम की शर्त थी कि वे केवल ब्राह्मणों को ही अपना शिष्य बनाते हैं । कर्ण ने अपनी वास्तविक पहचान छिपाकर एक ब्राह्मण के रूप में गुरु परशुराम से शिक्षा मांगी। परशुराम जी ने भी उसे शिष्य स्वीकार किया और उसे शस्त्र विद्या के साथ-साथ ब्रह्मास्त्र का गोपनीय ज्ञान भी दिया।एक दिन, जब परशुराम थककर कर्ण की गोद में सिर रखकर आराम कर रहे थे, तभी एक कीड़ा कर्ण की बाजू पर काटने लगा।

कर्ण ने उस असहनीय पीड़ा को चुपचाप सह लिया, एक आह तक नहीं भरी, ताकि गुरु की नींद न टूटे। जब कीड़े के काटने से रक्त बहने लगा, तो परशुराम की नींद टूट गई। रक्त देखकर परशुराम को संदेह हुआ, क्योंकि इतनी पीड़ा सहन करना केवल एक क्षत्रिय के लिए ही संभव था।परशुराम ने कर्ण से उग्र स्वर में उसका असली परिचय बताने को कहा।
जब कर्ण ने सारी सच्चाई बता दी कि वह एक सूतपुत्र है, तो क्रोधित परशुराम ने कर्ण को धोखा देने के कारण शाप दिया कि “जब तुम्हें अचूक अस्त्रों की सबसे अधिक आवश्यकता होगी, तब वे तुम्हारे काम नहीं आएंगे।” इस प्रकार, कर्ण को अपने गुरु परशुराम के विश्वास को तोड़ने के लिए यह भयानक शाप मिला।
एक बार वह जंगल में धनुष के साथ अभ्यास कर रहा था। उसी समय, उसका एक तीर अनजाने में एक गाय को लग गया और गाय की तत्काल मृत्यु हो गई। यह गाय एक गरीब गौपालक लिए आजीविका का मुख्य साधन थी।गरीब गौपालक ने कर्ण की इस भूल के लिए क्रोधित होकर उसे शाप दिया कि “जिस प्रकार मेरी असहाय गाय मारी गई, उसी प्रकार तुम भी असहाय अवस्था में मारे जाओगे।
कर्ण पर परशुराम के अभिशाप का प्रभाव
दोनों शाप कर्ण के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और महाभारत युद्ध के दौरान प्रभावी होते हैं।जब महाभारत का युद्ध अपने चरम पर था, और कर्ण ने अर्जुन के विरुद्ध युद्ध में ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करने की घोषणा की, तभी श्री कृष्ण ने एक चाल चली। कृष्ण ने युद्ध की शुरुआत में महाबली भीम से उनके पुत्र घटोत्कच को मैदान में उतारने के लिए कहा।

घटोत्कच, जो भीम और राक्षस कुल से संबंध रखने वाली हिडिंबा का पुत्र था, अत्यंत पराक्रमी था। घटोत्कच ने युद्ध के मैदान में उतरकर ऐसा कोहराम मचाया कि कौरवों की सेना भागने लगी और युद्ध उनके हाथ से निकलता प्रतीत हुआ।यह देखकर दुर्योधन ने महावीर कर्ण को घटोत्कच को तुरंत ही ब्रह्मास्त्र चलाकर मार डालने का आदेश दिया। कर्ण ने कहा कि उसने यह अस्त्र अर्जुन के साथ युद्ध में उपयोग करने के लिए रखा है ।
दुर्योधन ने झल्ला कर कहा, “अर्जुन से युद्ध करने के लिए जीवित रहना जरूरी है, और इस वक्त घटोत्कच के प्रदर्शन को देखते हुए मुझे आज इसमें भी संदेह है। यह थोड़ी देर और जीवित रहा तो मेरी पूरी सेना ही मार देगा। इसे तुरंत खत्म कर दो!”मजबूरी में, कर्ण को घटोत्कच पर ब्रह्मास्त्र चलाना पड़ा। घटोत्कच वीरगति को प्राप्त हुआ, लेकिन जिस काम के लिए श्री कृष्ण ने उसे भेजा था, वह उसने पूरा कर दिया—जो था अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का उपयोग न होने देना। परशुराम जी के कथन अनुसार, ब्रह्मास्त्र का उपयोग ठीक उस जगह नहीं हुआ, जहाँ कर्ण को उसकी सबसे अधिक आवश्यकता थी।

कर्ण पर गरीब गौपालक के अभिशाप का प्रभाव
तब सत्य हुआ जब कुरुक्षेत्र युद्ध में कर्ण के रथ का पहिया कीचड़ में फंस गया और वह बीच युद्ध में पहिया निकालने के लिए नीचे उतरा। श्री कृष्ण ने अर्जुन को कर्ण पर तीर चलाने का आदेश दिया, क्योंकि कर्ण उस गरीब गौपालक की गाय सा असहाय अवस्था में था। कर्ण ने आपत्ति जताते हुए अर्जुन को तीर चलाने से रोका और इसे धर्म विरुद्ध आचरण बताया। अर्जुन भी कुछ हद तक सहमत था, और उसने श्री कृष्ण से पूछा कि क्या इस वक्त कर्ण पर तीर चलाना धर्म के विरुद्ध नहीं है?

श्री कृष्ण हंसते हुए उत्तर दिया, “नीति की बात वे लोग नहीं कर सकते जिन्होंने असहाय द्रौपदी का चीरहरण भरी सभा में होते हुए देखा और तुम्हारे पुत्र अभिमन्यु के चक्रव्यूह में मरणासन्न अवस्था में होने के बाद भी हमला कर, उसे पानी तक नहीं दिया। इसलिए, ‘हे अर्जुन’, ऐसे अधर्मी के लिए धर्म-अधर्म नहीं देखा जाता, उसे सिर्फ मृत्यु दी जाती है।”श्री कृष्ण के इन शब्दों से सहमत हो क्रोध से भरे अर्जुन ने कर्ण के प्राण हर लिए।
कर्ण की कहानी का निष्कर्ष
कर्ण एक महान योद्धा और दानवीर था, परंतु उसकी कहानी यह दर्शाती है कि सत्य और धर्म का पालन कितना महत्वपूर्ण है और कैसे एक छोटी-सी भूल भी जीवन में भारी परिणाम ला सकती है। उसकी नियति उसके कर्मों और अभिशापों के जाल में इस तरह फंसी कि अंततः उसे अपनी वीरता और दानशीलता के बावजूद अधर्म का साथ देने के कारण उसे एक दुखद अंत देखना पड़ा।